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चुनाव आयोग बताए, कब और क्यों हटाई गई सजा पाए नेताओं की चुनावी पाबंदी: सुप्रीम कोर्ट

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सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से मांगा ब्योरा, दोषी नेताओं की चुनावी अयोग्यता हटाने पर सवाल सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को चुनाव आयोग से उन मामलों का पूरा ब्योरा मांगा, जिनमें किसी नेता की आपराधिक सजा के बाद उनकी चुनाव लड़ने की अयोग्यता को या तो पूरी तरह हटा दिया गया या फिर उसकी अवधि कम कर दी गई। जस्टिस दीपांकर दत्ता और मनमोहन की बेंच ने चुनाव आयोग को दो हफ्ते के भीतर उन मामलों की जानकारी देने को कहा, जहां उसने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 की धारा 11 के तहत यह शक्ति इस्तेमाल की। कानून के मुताबिक, अगर किसी नेता को दो या उससे ज्यादा साल की सजा होती है, तो उसकी चुनाव लड़ने की पात्रता सजा पूरी होने के बाद छह साल तक के लिए खत्म हो जाती है, चाहे वह व्यक्ति जमानत पर बाहर ही क्यों न हो। हालांकि, चुनाव आयोग को यह अधिकार है कि वह तय कारणों के आधार पर इस अयोग्यता को कम कर सकता है या पूरी तरह से हटा सकता है। इस मामले में जनहित याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय और अन्य को दो हफ्ते के भीतर चुनाव आयोग के जवाब पर अपनी प्रतिक्रिया देने की अनुमति दी गई है। 2016 में दायर इस जनहित याचिका में दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने और सांसदों-विधायकों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों के जल्द निपटारे की मांग की गई थी। सुनवाई के दौरान कोर्ट को बताया गया कि एक अन्य एनजीओ ‘लोक प्रहरी’ की इसी तरह की याचिका भी पहले से लंबित है। इस पर जस्टिस दत्ता ने दोनों मामलों को एक साथ सुनवाई के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को भेजने का निर्देश दिया।

सुनवाई के दौरान सीनियर एडवोकेट विजय हंसरिया ने, जो कोर्ट में न्यायिक सहायता के लिए मौजूद थे, बताया कि दोषी नेताओं की चुनावी अयोग्यता हटाने या कम करने से जुड़े कोई भी आंकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं और चुनाव आयोग को यह जानकारी देनी चाहिए। वहीं, याचिकाकर्ता के वकील सीनियर एडवोकेट विकास सिंह ने दलील दी कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत है। उन्होंने चुनाव आयोग की इस सिफारिश का हवाला दिया कि जिन लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर हो चुकी है, उन्हें चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए। चुनाव आयोग के वकील ने कहा कि आयोग को ऐसे मामलों का ब्योरा देने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन इस याचिका में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 11 की संवैधानिक वैधता को चुनौती नहीं दी गई है। हालांकि, केंद्र सरकार ने हाल ही में इस याचिका का विरोध किया और कहा कि दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने का अधिकार केवल संसद के पास है। सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि यह मांग संसद के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने जैसी है और अदालत को कानून बनाने या बदलने का निर्देश देने का अधिकार नहीं है। सरकार ने यह भी कहा कि किसी सजा की अवधि तय करने या उसे समय के आधार पर सीमित करने में कोई असंवैधानिकता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 10 फरवरी को केंद्र और चुनाव आयोग से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 और 9 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर जवाब मांगा था। कोर्ट ने राजनीति के अपराधीकरण को गंभीर मुद्दा मानते हुए पूछा कि जब कोई व्यक्ति आपराधिक मामले में दोषी ठहराया जा चुका है, तो वह दोबारा संसद में कैसे आ सकता है?

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