2025 की अनदेखी लेकिन दमदार फिल्में: शोर से दूर, कंटेंट के दम पर दिल में उतरने वाली कहानियां

2025 की वो खास हिंदी फिल्में जो बिना शोर के दिलों में बस गईं-अगर 2025 को सिर्फ बड़े बजट, स्टार कास्ट और जोरदार प्रचार के नजरिए से देखा जाए, तो यह साल उन्हीं फिल्मों का रहा। लेकिन इसी भीड़ में कुछ ऐसी फिल्में भी आईं, जो बिना ज्यादा शोर मचाए, अपने दमदार कंटेंट और ईमानदार अभिनय से दर्शकों के दिलों में गहरी छाप छोड़ गईं। ये फिल्में भले ही ज्यादा चर्चा में न आईं, लेकिन उनकी कहानी, निर्देशन और अभिनय की ताकत कम नहीं थी। आइए जानते हैं 2025 की उन फिल्मों के बारे में, जो नजरों से ओझल रहीं, लेकिन असरदार साबित हुईं।
क्रेजी: एक किरदार, एक जगह और पूरी फिल्म का दांव-सोहम शाह की फिल्म ‘क्रेजी’ हिंदी सिनेमा में एक अलग और साहसी प्रयोग है। पूरी फिल्म एक ही जगह और लगभग एक ही किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है। यहां कहानी से ज्यादा जरूरी होता है कलाकार का स्क्रीन पर टिके रहना और दर्शकों को बांधे रखना। सोहम शाह ने इस चुनौती को बखूबी निभाया है। फिल्म आसान मनोरंजन नहीं देती, बल्कि दर्शकों की सहनशक्ति की परीक्षा लेती है। म्यूजिक और प्रमोशन भी पारंपरिक से हटकर है, जो इसे खास बनाता है। क्लाइमैक्स हर किसी को पसंद न आए, लेकिन अनुभव के तौर पर यह फिल्म यादगार है।
होमबाउंड: रिश्तों और घर की भावना को सादगी से छूती कहानी-‘होमबाउंड’ एक ऐसी फिल्म है जो बिना किसी बड़े ड्रामे के दिल को छू जाती है। यह फिल्म जोर-शोर या भारी बैकग्राउंड स्कोर के बिना रिश्तों की नाजुक परतों और घर की भावना को बेहद सरलता से पेश करती है। फिल्म का धीमा नैरेटिव इसकी ताकत है, जो हर सीन को सांस लेने की जगह देता है। किरदार इतने असली लगते हैं कि उनकी चुप्पियां भी बहुत कुछ कह जाती हैं। जो दर्शक धैर्य से फिल्म देखना पसंद करते हैं, उनके लिए ‘होमबाउंड’ एक गहरा अनुभव साबित होती है।
द डिप्लोमैट: कूटनीति और भावनाओं का संतुलित मेल-जॉन अब्राहम और सादिया ख़तीब की फिल्म ‘द डिप्लोमैट’ भारत-पाक रिश्तों जैसे संवेदनशील मुद्दे को बिना अतिशयोक्ति के पेश करती है। यह फिल्म न तो ज्यादा राष्ट्रवाद दिखाती है, न ही किसी पक्ष को गलत ठहराती है। निजी भावनाओं और कूटनीतिक दबावों के बीच संतुलन बनाकर कहानी आगे बढ़ती है। जॉन का संयमित अभिनय और सादिया की सादगी फिल्म को विश्वसनीय बनाती है। थ्रिल है, लेकिन शोर नहीं, इसलिए यह फिल्म बड़ी भीड़ तक नहीं पहुंच सकी, लेकिन देखने वालों ने इसे सराहा।
देवा: सस्पेंस और इमोशन का गंभीर मेल-शाहिद कपूर की ‘देवा’ एक साइकोलॉजिकल एक्शन थ्रिलर है, जो सिर्फ एक्शन पर निर्भर नहीं करती। फिल्म का टोन गंभीर है और किरदार कई परतों में बंटे हुए हैं। कहानी धीरे-धीरे खुलती है और दर्शक को सोचने पर मजबूर करती है। शाहिद कपूर का अभिनय फिल्म की रीढ़ है, जहां वह गुस्सा, उलझन और भावनात्मक टूटन को बारीकी से निभाते हैं। यह फिल्म उन दर्शकों के लिए है जो हल्की-फुल्की थ्रिलर नहीं, बल्कि दिमाग से जुड़ी कहानियां पसंद करते हैं।
धड़क 2: प्रेम कहानी से आगे की सच्चाई-‘धड़क 2’ सिर्फ एक लव स्टोरी नहीं, बल्कि जाति, पहचान और सामाजिक भेदभाव जैसे गहरे मुद्दों को भी छूती है। सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी ने अपने किरदारों को बहुत ईमानदारी से निभाया है, जिससे कहानी बनावटी नहीं लगती। फिल्म दिखाती है कि प्यार केवल दो लोगों का मामला नहीं होता, बल्कि समाज की सोच भी उसके रास्ते में आती है। बॉक्स ऑफिस पर इसे बड़ी सफलता नहीं मिली, लेकिन इसकी गंभीरता और अभिनय की सच्चाई इसे खास बनाती है।
Mrs.: चुपचाप लेकिन गहराई से असर करने वाली फिल्म-‘The Great Indian Kitchen’ के हिंदी रीमेक ‘Mrs.’ में सान्या मल्होत्रा ने बेहद सधा हुआ अभिनय किया है। यह फिल्म जोर-शोर से नहीं, बल्कि शांति से पितृसत्तात्मक सोच पर सवाल उठाती है। रोजमर्रा की जिंदगी के छोटे-छोटे पल, जो अक्सर नजरअंदाज हो जाते हैं, यहां सबसे बड़ा बयान बन जाते हैं। महिला की आजादी, आत्मसम्मान और पहचान को बिना भाषण दिए फिल्म सामने रखती है। ‘Mrs.’ देखने के बाद दर्शक खुद से सवाल करने लगता है, जो किसी भी अच्छी फिल्म की सबसे बड़ी जीत होती है।
आगरा: असहज सवालों से डरती नहीं यह फिल्म-‘आगरा’ एक ऐसी फिल्म है जो आरामदेह नहीं, बल्कि जरूरी सवाल उठाती है। छोटे शहर की पृष्ठभूमि में बनी यह फिल्म रिश्तों, दबी इच्छाओं और मर्दानगी जैसे विषयों को बेबाकी से सामने रखती है। किरदार परफेक्ट नहीं, बल्कि अपनी कमजोरियों के साथ मौजूद हैं। फिल्म कई ऐसे सवाल उठाती है, जिन पर आमतौर पर बात नहीं होती। इसकी ईमानदारी इसे खास बनाती है। ‘आगरा’ दर्शक को सोचने पर मजबूर करती है और इसलिए यह हर किसी के लिए आसान फिल्म नहीं, लेकिन असरदार जरूर है।
2025 में ये फिल्में भले ही बड़े बजट और स्टारडम की चमक से दूर रहीं, लेकिन अपने कंटेंट, अभिनय और सच्चाई के दम पर हिंदी सिनेमा में अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब रहीं। ऐसे सिनेमा को पहचान मिलना जरूरी है, क्योंकि यही फिल्में असली कला और सोच को दर्शाती हैं।



