30 साल बाद मिला इंसाफ: कोरबा की महिला को SECL से मिला हक, फर्जीवाड़े का खुला राज

एक लंबी लड़ाई का अंत:1981 में, कोरबा के दीपका गाँव की निर्मला तिवारी की ज़मीन SECL खदान के लिए ली गई थी। मुआवज़ा तो मिला, लेकिन साथ में किया गया वादा- नौकरी- नहीं। उनकी जगह, एक झूठे व्यक्ति को नौकरी मिल गई, जिसने खुद को निर्मला का बेटा बताया। यह एक सामान्य सी घटना नहीं थी, बल्कि एक लंबी कानूनी लड़ाई की शुरुआत थी।
30 साल की कानूनी जंग:इस धोखाधड़ी का पता चलते ही निर्मला ने हार नहीं मानी। उन्होंने SECL के खिलाफ कोर्ट में केस लड़ना शुरू कर दिया। लगभग 30 साल तक चली इस कानूनी लड़ाई के बाद, 2016 में SECL ने उस झूठे कर्मचारी को बर्खास्त किया। लेकिन यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं हुई थी।
न्याय की राह में रुकावटें:अब निर्मला चाहती थीं कि उनके असली बेटे, उमेश तिवारी को नौकरी मिले। लेकिन SECL ने मना कर दिया, यह कहते हुए कि ज़मीन का तब म्यूटेशन नहीं हुआ था और न ही उमेश का जन्म हुआ था। यह एक और बाधा थी निर्मला के न्याय पाने के रास्ते में।
हाईकोर्ट का फैसला:लेकिन हाईकोर्ट ने SECL की इस दलील को खारिज कर दिया। कोर्ट ने साफ कहा कि म्यूटेशन ज़मीन के मालिकाना हक़ का सबूत नहीं है, बल्कि कब्ज़े का। चूँकि मुआवज़ा निर्मला को मिला था, इसलिए वे ज़मीन की असली मालिक हैं। और गलत व्यक्ति को दी गई नौकरी की गलती को सुधारते हुए, असली हक़दार को उसका हक़ मिलना ही चाहिए।
एक परिवार का तीन दशक का अन्याय:कोर्ट ने यह भी कहा कि सिर्फ़ इस आधार पर कि उमेश का जन्म ज़मीन अधिग्रहण के समय नहीं हुआ था, उसके अधिकार को खारिज नहीं किया जा सकता। SECL ने न सिर्फ़ वादा तोड़ा, बल्कि एक झूठे व्यक्ति को नौकरी देकर निर्मला के परिवार के साथ तीन दशक तक अन्याय किया।
अंत में मिला न्याय:हाईकोर्ट ने SECL को आदेश दिया कि उमेश तिवारी को 6 जुलाई 2017 से नौकरी दी जाए और उन्हें उस दिन से मिलने वाले सभी लाभ भी दिए जाएँ। यह फैसला न सिर्फ़ निर्मला की लंबी लड़ाई का नतीजा है, बल्कि सिस्टम के लिए भी एक सबक है।



