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स्टालिन की ‘कामयाबी’ से डीएमके को संघवाद की लड़ाई में मिला संबल

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“ये सिर्फ़ तमिलनाडु की नहीं, बल्कि पूरे देश की राज्य सरकारों की जीत है… ये एक ऐतिहासिक फ़ैसला है,” मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने विधानसभा में ऐलान किया, जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा रोके गए दस विधेयकों को मंज़ूरी मिल चुकी मानने का अधिकार इस्तेमाल किया। राज्यपाल की कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट से मिली इस जीत को लेकर स्टालिन अपनी खुशी छुपा नहीं पाए और उन्होंने डीएमके और उसके सहयोगी दलों के विधायकों से — जब AIADMK और बीजेपी के सदस्य वॉकआउट कर चुके थे — डेस्क थपथपाकर सुप्रीम कोर्ट का आभार जताने को कहा। स्टालिन ने अपनी इस “जीत” का जश्न आगे भी मनाया — उन्होंने राज्यसभा सांसद और इस कानूनी लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाले पी. विल्सन को मिठाई खिलाई और अपने चैंबर में शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया। इस फ़ैसले को भारत के संघीय ढांचे के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जा रहा है, क्योंकि इसमें सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने की समय-सीमा तय कर दी है।

स्टालिन के लिए ये फ़ैसला काफी अहम है, क्योंकि वो खुद को बीजेपी के ख़िलाफ़ एकजुटता का चेहरा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वो बीजेपी पर ये आरोप लगाते रहे हैं कि वह संघीय ढांचे को कमज़ोर कर रही है और राज्य सरकारों को राज्यपालों के ज़रिए दबा रही है। ये फ़ैसला स्टालिन को बीजेपी पर निशाना साधने का एक और मौका देता है, खासकर तमिलनाडु में जहां बीजेपी को अभी भी पांव जमाने में मुश्किल हो रही है और डीएमके उसका वैचारिक विरोधी है। डीएमके 1960 के दशक से ही संघवाद और राज्यों के अधिकारों की बात करता रहा है। ऐसे में ये फ़ैसला पार्टी के लिए न सिर्फ़ एक बड़ी राहत है — खासकर जब 2026 के अहम विधानसभा चुनाव सिर्फ़ एक साल दूर हैं — बल्कि ये उनके उस वैचारिक रुख को भी और मजबूत करता है जिसमें वो राज्यपाल के पद को भारत जैसे लोकतंत्र में बेमतलब मानते हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह बात कि राज्यपाल को पूरी ताक़त नहीं है, और उसे कैबिनेट की सलाह पर ही काम करना होगा, एकदम सही समय पर आई है — जब स्टालिन बीजेपी के साथ कई मुद्दों पर टकराव में हैं, जैसे राज्य की दो-भाषा नीति और परिसीमन का मुद्दा।

डीएमके और स्टालिन अब इस फ़ैसले को अपनी एक उपलब्धि के तौर पर पेश करेंगे और इसे चुनावी मुद्दा बनाएंगे — मुख्यमंत्री तो पहले ही 2026 का चुनाव तमिलनाडु बनाम दिल्ली (केंद्र) की लड़ाई के रूप में पेश करने की दिशा में बढ़ चुके हैं। वरिष्ठ पत्रकार आर. भगवान सिंह ने ‘डीएच’ से कहा, “स्टालिन तो पहले से ही ममता बनर्जी को छोड़कर सभी गैर-बीजेपी मुख्यमंत्रियों के लिए एकजुटता का चेहरा बन चुके हैं। ये फ़ैसला उनके लिए बहुत बड़ी जीत है और अब वो पूरे देश में घूम-घूमकर बीजेपी की आलोचना करेंगे। बीजेपी की द्रविड़ विचारधारा को समझने में की गई ग़लतियां ही अब स्टालिन के लिए आशीर्वाद बन गई हैं।” विल्सन ने कहा कि यह फ़ैसला डीएमके सरकार के लिए राज्यपाल के खिलाफ एक बड़ी जीत है। “अनुच्छेद 200 राज्यपाल को पॉकेट वीटो या पूरी तरह से मना करने का हक़ नहीं देता। अगर उनके पास कोई विधेयक भेजा जाता है, तो उन्हें या तो उसे मंज़ूरी देनी होगी, या रोकनी होगी, या फिर राष्ट्रपति के पास भेजना होगा — लेकिन वो उसे अनिश्चितकाल तक रोके नहीं रख सकते,” उन्होंने कहा। डीएमके की तो राज्यपाल के पद को लेकर पहले से ही नाराज़गी रही है — उसकी सरकारें 1976 और 1991 में दो बार बर्खास्त की जा चुकी हैं — और राज्यपाल रवि की हर कार्रवाई का उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में जोरदार विरोध किया। स्टालिन के पिता एम. करुणानिधि ने, अपने गुरु सी.एन. अन्नादुरै की जगह मुख्यमंत्री बनने के कुछ महीनों बाद ही, संघीय ढांचे को मज़बूत करने के लिए राजामन्नार समिति बनाई थी। इस समिति ने सुझाव दिया था कि राज्यपाल को सिर्फ एक संवैधानिक प्रमुख के तौर पर काम करना चाहिए, न कि केंद्र सरकार के एजेंट की तरह।

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